कंकाल-अध्याय -५९
'सरकार, पेट नहीं भरता, दो बीघा जमीन से क्या होता है।' मिरजा ने कौतुक से कहा, 'तो तुम लोगों को कोई सुखी रखना चाहे, तो रह सकते हो?' रहमत के लिए जैसे छप्पर फाड़कर किसी ने आनन्द बरसा दिया। वह भविष्य की सुखमयी कल्पनाओं से पागल हो उठा, 'क्यों नहीं सरकार! आप गुनियों की परख रखते हैं।' सोमदेव ने धीरे से कहा, 'वेश्या है सरकार।' मिरजा ने कहा, 'दरिद्र हैं।' सोमदेव ने विरक्त होकर सिर झुका लिया। कई बरस बीत गये। शबनम मिरजा के महल में रहने लगी थी। 'सुन्दरी! सुन्दरी! ओ बन्दरी! यहाँ तो आ!' 'आई!' कहती हुई एक चंचल छोकरी हाथ बाँधे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी भवें हँस रही थीं। वह अपने होंठो को बड़े दबाव से रोक रही थी। 'देखो तो आज इसे क्या हो गया है। बोलती नहीं, मरे मारे बैठी है।' 'नहीं मलका! चारा-पानी रख देती हूँ। मैं तो इससे डरती हूँ! और कुछ नहीं करती।' 'फिर इसको क्या हो गया है, बतला नहीं तो सिर के बाल नोंच डालूँगी।' सुन्दरी को विश्वास था कि मलका कदापि ऐसा नहीं कर सकती। वह ताली पीटकर हँसने लगी और बोली, 'मैं समझ गयी!' उत्कण्ठा से मलका ने कहा, 'तो बताती क्यों नहीं?' 'जाऊँ सरकार को बुला लाऊँ, वे ही इसके मरम की बात जानते हैं।' 'सच कह, वे कभी इसे दुलार करते हैं, पुचकारते हैं मुझे तो विश्वास नहीं होता।' 'हाँ।' 'तो मैं ही चलती हूँ, तू इसे उठा ले।' सुन्दरी ने महीन सोने के तारों से बना हुआ पिंजरा उठा लिया और शबनम आरक्त कपोलों पर श्रम-सीकर पोंछती हुई उसके पीछे-पीछे चली। उपवन की कुंज गली परिमल से मस्त हो गयी। फूलों ने मकरन्द-पान करने के लिए अधरों-सी पंखड़ियाँ खोलीं। मधुप लड़खड़ाये। मलयानिल सूचना देने के लिए आगे-आगे दौड़ने लगा। 'लोभ! सो भी धन का! ओह कितना सुन्दर सर्प भीतर फुफकार रहा है। कोहनूर का सीसफूल गजमुक्ताओं की एकावली बिना अधूरा है, क्यों वह तो कंगाल थी। वह मेरी कौन है 'कोई नहीं सरकार!' कहते हुए सोमदेव ने विचार में बाधा उपस्थित कर दी। 'हाँ सोमदेव, मैं भूल कर रहा था।' 'बहुत-से लोग वेदान्त की व्याख्या करते हुए ऊपर से देवता बन जाते हैं और भीतर उनके वह नोंच-खसोट चला करता है, जिसकी सीमा नहीं।' 'वही तो सोमदेव! कंगाल को सोने में नहला दिया; पर उसका कोई तत्काल फल न हुआ-मैं समझता हूँ वह सुखी न रह सकी।' 'सोने की परिभाषा कदाचित् सबके लिए भिन्न-भिन्न हो! कवि कहते हैं-सवेरे की किरणें सुनहली हैं, राजनीतिक विशारद-सुन्दर राज्य को सुनहला शासन कहते हैं। प्रणयी यौवन में सुनहरा पानी देखते हैं और माता अपने बच्चे के सुनहले बालों के गुच्छों पर सोना लुटा देती है। यह कठोर, निर्दय, प्राणहारी पीला सोना ही तो सोना नहीं है।' सोमदेव ने कहा 'सोमदेव! कठोर परिश्रम से, लाखों बरस से, नये-नये उपाय से, मनुष्य पृथ्वी से सोना निकाल रहा है, पर वह भी किसी-न-किसी प्रकार फिर पृथ्वी में जा घुसता है। मैं सोचता हूँ कि इतना धन क्या होगा! लुटाकर देखूँ?' 'सब तो लुटा दिया, अब कुछ कोष में है भी?' 'संचित धन अब नहीं रहा।' 'क्या वह सब प्रभात के झरते हुए ओस की बूँदों में अरुण किरणों की छाया थी और मैंने जीवन का कुछ सुख भी नहीं लिया!' 'सरकार! सब सुख सबके पास एक साथ नहीं आते, नहीं तो विधाता को सुख बाँटने में बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती!' चिढ़कर मिरजा ने कहा, 'जाओ!' सोमदेव चला गया, और मिरजा एकान्त में जीवन की गुत्थियों को सुलझाने लगे। वापी के मरकत जल को निर्निमेष देखते हुए वे संगमर्मर के उसी प्रकोष्ठ के सामने निश्चेष्ट थे, जिसमें बैठे थे। नूपुर की झनकार ने स्वप्न भंग कर दिया-'देखो तो इसे हो क्या गया है, बोलता नहीं क्यों! तुम चाहो तो यह बोल दे।' 'ऐं! इसका पिंजड़ा तो तुमने सोने से लाद दिया है, मलका! बहुत हो जाने पर भी सोना सोना ही है! ऐसा दुरुपयोग!' 'तुम इसे देखो तो, क्यों दुखी है?' 'ले जाओ, जब मैं अपने जीवन के प्रश्नों पर विचार कर रहा हूँ, तब तुम यह खिलवाड़ दिखाकर मुझे भुलवाना चाहती हो!' 'मैं तुम्हें भुलवा सकती हूँ!' मिरजा का यह रूप शबनम ने कभी नहीं देखा था। वह उनके गर्म आलिंगन, प्रेम-पूर्ण चुम्बन और स्निग्ध दृष्टि से सदैव ओत-प्रोत रहती थी-आज अचानक यह क्या! संसार अब तक उसके लिए एक सुनहरी छाया और जीवन एक मधुर स्वप्न था। खंजरीट मोती उगलने लगे। मिरजा को चेतना हुई-उसी शबनम को प्रसन्न करने के लिए तो वह कुछ विचारता-सोचता है, फिर यह क्या! यह क्या-मेरी एक बात भी यह हँसकर नहीं उड़ा सकती, झट उसका प्रतिकार! उन्होंने उत्तेजित होकर कहा, 'सुन्दरी! उठा ले मेरे सामने से पिंजरा, नहीं तो तेरी भी खोपड़ी फूटेगी और यह तो टूटेगा ही!' सुन्दरी ने बेढब रंग देखा, वह पिंजरा लेकर चली। मन में सोचती जाती थी-आज वह क्या! मन-बहलाव न होकर यह काण्ड कैसा! शबनम तिरस्कार न सह सकी, वह मर्माहत होकर श्वेत प्रस्तर के स्तम्भ में टिककर सिसकने लगी। मिरजा ने अपने मन को धिक्कारा। रोने वाली मलका ने उस अकारण अकरुण हृदय को द्रवित कर दिया। उन्होंने मलका को मनाने की चेष्टा की, पर मानिनी का दुलार हिचकियाँ लेने लगा। कोमल उपचारों ने मलका को जब बहुत समय बीतने पर स्वस्थ किया, तब आँसू के सूखे पद-चिह्न पर हँसी की दौड़ धीमी थी, बात बदलने के लिए मिरजा ने कहा, 'मलका, आज अपना सितार सुनाओ, देखें, अब तुम कैसा बजाती हो?' 'नहीं, तुम हँसी करोगे और मैं फिर दुखी होऊँगी।' 'तो मैं समझ गया, जैसे तुम्हारा बुलबुल एक ही आलाप जानता है-वैसे ही तुम अभी तक वही भैरवी की एक तान जानती होगी।' कहते हुए मिरजा बाहर चले गये। सामने सोमदेव मिला, मिरजा ने कहा, 'सोमदेव! कंगाल धन का आदर करना नहीं जानते।' 'ठीक है श्रीमान्, धनी भी तो सब का आदर करना नहीं जानते, क्योंकि सबके आदरों के प्रकार भिन्न हैं। जो सुख-सम्मान आपने शबनम को दे रखा है, वही यदि किसी कुलवधु को मिलता!' 'वह वेश्या तो नहीं है। फिर भी सोमदेव, सब वेश्याओं को देखो-उनमें कितने के मुख सरल हैं, उनकी भोली-भाली आँखें रो-रोकर कहती हैं, मुझे पीट-पीटकर चंचलता सिखायी गयी है। मेरा विश्वास है कि उन्हें अवसर दिया जाये तो वे कितनी कुलवधुओं से किसी बात में कम न होतीं!'